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पु॒रू॒रुणा॑ चि॒द्ध्यस्त्यवो॑ नू॒नं वां॑ वरुण। मित्र॒ वंसि॑ वां सुम॒तिम् ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

purūruṇā cid dhy asty avo nūnaṁ vāṁ varuṇa | mitra vaṁsi vāṁ sumatim ||

पद पाठ

पु॒रु॒ऽउ॒रुणा॑। चि॒त्। हि। अस्ति॑। अवः॑। नू॒नम्। वा॒म्। व॒रु॒ण॒। मित्र॑। वंसि॑। वा॒म्। सु॒ऽम॒तिम् ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:70» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:8» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चार ऋचावाले सत्तरवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्र) मित्र (वरुण) श्रेष्ठ ! (हि) जिससे (वाम्) आप दोनों का जो (पुरूरुणा) अत्यन्त बहुत (नूनम्) निश्चित (अवः) रक्षण आदि (अस्ति) है और जिसको (चित्) निश्चित आप (वंसि) सेवन करते हैं और जो (वाम्) आप दोनों की (सुमतिम्) उत्तम बुद्धि को ग्रहण करता है, उन आप दोनों और उसकी हम लोग सेवा करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो रक्षक राजपुरुष प्रजाओं की अत्यन्त रक्षा करते हैं, वे ही प्रजापुरुषों से सेवा करने योग्य हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मित्र वरुण ! हि वां यत्पुरूरुणा नूनमवोऽस्ति यत् चित् त्वं वंसि यो वां सुमतिं गृह्णाति तौ युवां तं च वयं सेवेमहि ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरूरुणा) बहुतरम्। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (चित्) अपि (हि) यतः (अस्ति) (अवः) रक्षणादिकम् (नूनम्) निश्चितम् (वाम्) युवयोः (वरुण) वर (मित्र) सखे (वंसि) सम्भजसि (वाम्) युवयोः (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये रक्षका राजपुरुषाः प्रजा अत्यन्तं रक्षन्ति त एव प्रजापुरुषैः सेव्याः सन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात प्राण, उदान व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगता जाणावी.

भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जे रक्षक राजपुरुष प्रजेचे आत्यंतिक रक्षण करतात. प्रजा त्यांचीच सेवा करते. ॥ १ ॥